गावों की चारित्रिक विशेषताओं में से एक इसकी स्वागत करने की प्रवृत्ति है। शहर की भांति यहां पूंजीगत चकाचौंध और हर दिन एक नए उम्मीद को साधने का संघर्ष नहीं। शहर की तुलना में गांव अत्यधिक शांत और मनोरम लगता है। गांव का परिवेश आपको संवारता है और शहर में लोग परिवेश को हर रोज़ नई शक्ल दे रहे हैं। कभी फ्लाईओवर निर्माण, कभी मेट्रो निर्माण, कभी शॉपिंग माल आदि। शहर रुकता नहीं, यह गतिशील है। संघर्षरत है। जबकि गावों में यह गुण गौण हैं।
ग्रामीण जीवन तमाम खुलेपन के बावजूद कई बंदिशों से बंधा रहता है। शहर में तंग गलियां, छोटे घर एवं सड़कों का ट्रैफिक भी आपको इतना नहीं बांधता जितना गावों का पिछड़ापन बांधता है। धार्मिक संलङता अवश्य ही ग्रामीण जीवन की एक सच्चाई है परन्तु यह कतई पिछड़ेपन को तो इंगित नहीं करती।
मगर धार्मिक आधार पर रचे हुए आडंबर एवं कुरीतियां ज़रूर ग्रामीण समाज के पिछड़ेपन को परिलक्षित करते हैं। गावों के वातावरण एवं प्राकृत सौंदर्य की भांति यह कुरीतियां कतई मनभावन नहीं लगती। हालांकि अब कई घृणास्पद कुरीतियों का अंत हो चुका है, जातिगत विषमताएं भी पिछली सदी जितनी प्रखर नहीं दिखाई पड़ती। जो दुर्भावना, जातिगत आधार पर लोगों के रगों में विद्यमान थी। अब वो कहीं कुछ प्रतिशत लोगों के मानसिक खिड़कियों के झरोखों में दिखाई पड़ती है।
जातिगत आधार पर अब अत्याचार उतना क्रूर भले ही ना हो। लेकिन इस आधार पर कटुता आज भी प्रासंगिक है। तथाकथित पिछड़ी जातियों के कुछ भाग के शैक्षणिक एवं आर्थिक उत्थान से भी गावों का परिदृश्य बदला है। पहले निम्न जातियों के लोगों की चेतना जिन कुप्रथाओं और अत्याचारों के अधीन समर्पित थी आज वह पहले के मुकाबले उन्मुक्त है। दलित वर्ग के पढ़े - लिखे लोगों की स्वच्छंदता और अन्य वर्गों की पुरातन उद्दंडता गावों में कुछ अजीब सी स्थिति बनाते हैं।
गावों के वर्णन में वर्ण व्यवस्था अनिवार्य रूप से सम्मिलित होनी चाहिए। जाति व्यवस्था शहरों में भी उपस्थित है भले ही इसका प्रभाव इन जगहों में महत्त्वपूर्ण न हो। फ्लाइट में यात्रा करते समय आपके सामान दो तरह से विभाजित होते हैं - हैंड लगेज और केबिन बैगेज। यह समझ लीजिए, गावों में आपकी जातिगत पहचान आपके हैण्ड लगेज के समान आपके साथ रहती है और शहर में यह केबिन बैगेज से अधिक कुछ भी नहीं।
गावों के निर्मल वातावरण को कुप्रथाएं दूषित करती हैं। आप अपने जीवन में चाहे अनचाहे अनेक धार्मिक प्रथाओं को छूते हैं या यह कह लीजिए कि जीवन के अनेक पड़ावों पर यह प्रथाएं आपको स्पर्श करती हैं। जैसे विवाह, श्राद्ध, गृह प्रवेश, मुंडन इत्यादि। प्रथाएं बुरी नहीं होती। लेकिन ऐसी कौनसी स्थितियां है जो एक प्रथा को कुप्रथा बनाती हैं?
जीवन के कई चरणों में यह प्रथाएं आपको दिशा और दशा प्रदान करती है। परन्तु जब आप प्रथाओं की दिशा और दशा तय करने लगते हैं। जीवन में प्रथा से प्रथक प्रथा में जीवन लगा देते हैं तब यह विषैली होने लगती है। और यह कुप्रथा हो जाती है।
यह विषय तब महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब इन रस्मों रिवाजों और अंधविश्वासों की हवा, भारत के गावों में डर, बेचैनी, भूत प्रेत के ढोंग और असुरक्षा के भाव की आग में ईंधन का काम करती है। ऐसे में देश के शीर्ष पर काबिज़ शासक की ज़िम्मेदारी है कि जैसे अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन के आंकड़े पर टांगना है वैसे ही सामाजिक व्यवस्था को भी उत्थान की जरूरत है।
अभिषेक मिश्रा
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